“मुंबई हाईकोर्ट ने 2006 ट्रेन बम ब्लास्ट के 12 आरोपियों को बरी किया: पुलिस यातना और जांच में गंभीर खामियां उजागर”

Report By: Kiran Prakash Singh

मुंबई हाईकोर्ट, ने 2006 के ट्रेन ब्लास्ट मामले में 12 आरोपियों को उन्नीस साल बाद बरी किया, फैसले ने दिखाया कि कैसे पुलिस ने यातना देकर कुबूलनामे लिए, जांच में खामियां रहीं और ट्रायल कोर्ट ने इसे नज़रअंदाज़ किया, हाईकोर्ट ने गंभीर टिप्पणियां की हैं, पर यातना के लिए दोषी अधिकारियों को जवाबदेह नहीं ठहराया |

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जिन 5 लोगों को पहले मौत की सज़ा दी गई थी, उनके नाम हैं: कमाल अंसारी, मोहम्मद फैसल अताउर रहमान शेख, एहतेशाम कुतुबुद्दीन सिद्दीक़ी, नावेद हुसैन खान और आसिफ़ खान, इन पर विशेष मकोका (मकोका) अदालत ने 2015 में बम लगाने, आतंकी ट्रेनिंग लेने और साजिश करने जैसे आरोपों में दोषी ठहराया था.

बाकी 7 लोगों को उम्रकैद (आजीवन कारावास) की सज़ा मिली थी, उनके नाम हैं: तनवीर अहमद मोहम्मद इब्राहिम अंसारी, मोहम्मद माजिद मोहम्मद शफी, शेख मोहम्मद अली आलम शेख, मोहम्मद साजिद मर्गूब अंसारी, मुज़म्मिल अताउर रहमान शेख, सुहैल महमूद शेख और ज़मीर अहमद लतीउर रहमान शेख. इनमें से कमाल अंसारी की 2021 में मौत हो गई थी.

हालांकि हाईकोर्ट ने अपने 667 पन्नों के फैसले में यह विस्तार से बताया कि कैसे प्रताड़ना हुई, लेकिन इस बात को साफ़ तौर पर नजरअंदाज़ किया कि किसने यह बर्बरता की, यानी, प्रताड़ना के ज़िम्मेदार लोगों की पहचान नहीं की गई — यह एक अहम सवाल अधूरा रह गया.

पूछताछ का आम ‘हथियार’ है यातना:

पुलिस द्वारा पूछताछ के दौरान यातना (टॉर्चर) एक आम तरीका है, जिसे अक्सर यह कहकर सही ठहराया जाता है कि जब कोई संदिग्ध ज़िद पर अड़ा हो और जांच में सहयोग न कर रहा हो, तो यही एकमात्र उपाय बचता है. चूंकि राज्य सरकार और पुलिस पहले ही इस मामले में अपनी कार्रवाई को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए इस फैसले की सीमाओं पर बात करने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि हाईकोर्ट ने उन 12 बंदी बनाए गए लोगों के मामलों को कैसे देखा.

11 जुलाई, 2006 को मुंबई में हुए सीरियल ट्रेन ब्लास्ट केस में जस्टिस श्याम सी. चंडक और जस्टिस अनिल एस. किलोर ने एक साथ जो फैसला लिखा, उसमें उन्होंने शुरुआत से ही एक स्पष्ट संदेश दे दिया:

असली अपराधी को सज़ा देना अपराध को रोकने, क़ानून का शासन बनाए रखने और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में एक ठोस और ज़रूरी क़दम होता है. लेकिन अगर किसी केस को सुलझा हुआ दिखाने के लिए सिर्फ दिखावे के तौर पर कुछ लोगों को दोषी ठहराकर पेश किया जाए, तो यह एक भ्रामक समाधान होता है. ऐसा करने से समाज को झूठी तसल्ली मिलती है और सार्वजनिक भरोसे को ठेस पहुंचती है, जबकि हकीकत में असली खतरा अब भी आज़ाद घूम रहा होता है. मूल रूप से यही बात यह मामला दिखाता है.

हालांकि हाईकोर्ट ने सभी 12 लोगों को सीधे-सीधे ‘निर्दोष’ नहीं कहा है, लेकिन फैसले की शुरुआती टिप्पणियां बहुत ठोस रूप से उनके निर्दोष होने की ओर इशारा करती हैं. यह निर्णय अभियोजन पक्ष के केस को एक-एक करके खारिज करता है और साथ ही यह विशेष रूप से इस बात पर ज़ोर देता है कि इन 12 लोगों से कुबूलनामे हासिल करने के लिए किस तरह की प्रताड़ना तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था.

अभियोजन पक्ष का दावा था कि आरोपी ईरान के रास्ते पाकिस्तान गए थे, वहां हथियार चलाने और बम बनाने की ट्रेनिंग ली थी, उनके पाकिस्तानी ‘हैंडलर’ थे, उन्होंने मुंबई की लोकल ट्रेन नेटवर्क की रेकी (जासूसी) की थी और फिर पश्चिमी लाइन की सात लोकल ट्रेनों पर एक सुनियोजित हमला किया था.

पूरा केस मुख्यतः पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के तुरंत बाद लिए गए कुबूलनामों पर आधारित था.

पूरे घटनाक्रम के दौरान, आरोपियों, उनके वकीलों और मेडिकल साक्ष्यों ने लगातार यह बताया कि उन्हें पुलिस हिरासत में और बाद में जेल में भी लंबे समय तक यातना दी गई. इन शिकायतों और सबूतों को लंबे समय तक न तो निचली अदालत ने और न ही राज्य की मशीनरी ने गंभीरता से लिया.

जब मामला आखिरकार उच्च न्यायालय पहुंचा, तो उसके पास यह अवसर था कि वह यातना के इस मुद्दे को सामने लाए और दोषी अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराए — सिर्फ निचले स्तर के पुलिसकर्मियों को ही नहीं, बल्कि उन वरिष्ठ अधिकारियों को भी, जिनमें कुछ आईपीएस अधिकारी भी शामिल थे.

2015 में बरी हुए शख्स ने करीब 100 पुलिसकर्मियों और मेडिकल अधिकारियों के नाम लिए

अब्दुल वाहिद शेख, जो 2015 में महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज़्ड क्राइम एक्ट (मकोका) की अदालत से बरी होने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे, उन्होंने करीब 100 पुलिसकर्मियों और मेडिकल अधिकारियों के नाम लिए हैं जिन्होंने उनके साथ और 12 अन्य बंद किए गए लोगों के साथ अन्याय किया. अपनी किताब ‘बेगुनाह क़ैदी’ में उन्होंने इस बर्बरता की विस्तार से जानकारी दी है और यह उजागर किया है कि कैसे अक्सर यातना के ज़रिए इक़बाल-ए-जुर्म (कुबूलनामे) लिए जाते रहे हैं.

मकोका, जो एक दमनकारी कानून माना जाता है, जिसमें 30 दिनों तक पुलिस हिरासत और 180 दिनों में चार्जशीट दाखिल करने की छूट शामिल है. इस कानून के तहत पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) के सामने दिए गए बयान अदालत में स्वीकार्य माने जाते हैं.

कानून यह भी अनिवार्य करता है कि बयान दर्ज करने वाला डीसीपी यह सुनिश्चित करे कि बयान स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव या ज़बरदस्ती के दिया गया है. लेकिन ट्रेन ब्लास्ट केस में हर उस डीसीपी ने, जिसने बयान दर्ज किया, यह सत्यापन नहीं किया कि कुबूलनामा स्वेच्छा से दिया गया था या नहीं.

न्यायाधीशों ने बचाव पक्ष की दलीलों को स्वीकार करते हुए कहा:

यह आवश्यक था कि यह पता लगाया जाए कि इस मामले में ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड’ (सोचने के लिए जरूरी समय) कितना होना चाहिए, आरोपियों के भीतर घर कर चुके भय को दूर करने के लिए कितनी मेहनत की ज़रूरत थी, स्वेच्छा से बयान देने को सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए गए, और क्या आरोपियों को प्रताड़ित किया गया था. यदि यह जानकारी जुटाई ही नहीं गई, तो डीसीपी इस नतीजे पर कैसे पहुंच सकता था कि बयान स्वेच्छा से दिया गया है?

अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि जब आरोपियों के कुबूलनामे दर्ज किए जा रहे थे, उस समय उनके शरीर पर दिख रही चोटों को संबंधित डीसीपी ने नजरअंदाज कर दिया. उन्होंने इनसे जुड़ी मेडिकल रिपोर्ट्स की समीक्षा भी नहीं की.

न्यायालय के फैसले में उन पुलिस अधिकारियों के नाम दर्ज हैं जिन्होंने बयान दर्ज करने की प्रक्रिया के दौरान निर्धारित नियमों का पालन नहीं किया. इनमें डीसीपी बृजेश सिंह, नौवल बजाज और डीएम फडतरे, पुलिस अधीक्षक संजय विलासराव मोहिते और दत्तात्रय राजाराम कराले जैसे अधिकारी शामिल हैं. इनमें से कुछ डीसीपी, जो कि आईपीएस अधिकारी थे, उन्होंने ट्रायल कोर्ट में एक जैसे टाइप किए हुए कुबूलनामे पेश किए जिन्हें मुकदमे के दौरान स्वीकार कर लिया गया.

फैसले में आर्थर रोड जेल की उस समय की अधीक्षक स्वाति साठे की भूमिका पर भी विचार किया गया है, जिन पर यह आरोप है कि उन्होंने आरोपियों को सरकारी गवाह बनने के लिए लुभाने की कोशिश की, और जब उन्होंने इनकार कर दिया तो 28 जून, 2008 को उन्हें पीटा गया.

तत्कालीन मुंबई पुलिस आयुक्त एएन रॉय और एटीएस प्रमुख केपी रघुवंशी पर भी यातना देने के आरोप लगाए गए थे, ये आरोप कोई मनगढ़ंत या मुकदमे की रणनीति का हिस्सा नहीं थे, बल्कि इन्हें मेडिकल साक्ष्यों का समर्थन प्राप्त था.

फैसले में बचाव पक्ष द्वारा अपील में प्रस्तुत की गई कई चार्टों को भी शामिल किया गया है, जिनमें उन बंद किए गए लोगों द्वारा कुबूलनामे वापस लेने (रेट्रैक्शन) की टाइमलाइन भी शामिल है. 12 में से 11 आरोपियों ने अपने बयान उसी दिन वापस ले लिए जिस दिन उन्हें पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा गया था, जबकि 12वें ने भी कुछ ही दिनों के भीतर अपना बयान वापस ले लिया था.

उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की:

यदि कोई कुबूलनामा सबसे पहले उपलब्ध अवसर पर वापस ले लिया जाता है, तो इसकी तुलना में उस पर ज़्यादा भरोसा किया जा सकता है, बजाय इसके कि आरोपी सेशन ट्रायल तक इंतज़ार करे… अदालतें ऐसे कुबूलनामों पर तब तक भरोसा नहीं करतीं जब तक आरोपी के दोषी होने को लेकर अन्य स्रोतों से पुष्टि न हो. यह कोई कानूनी नियम नहीं है, बल्कि विवेक का नियम है.

यहां जिस ‘विवेक’ की बात की गई है, वह उन अनेक यातना के आरोपों से जुड़ा है जो आरोपियों ने लगाए थे.

 

अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि ट्रायल जज वाईडी शिंदे को बार-बार यातना की जानकारी दी गई थी, लेकिन उन्होंने इन गंभीर आरोपों पर कोई कार्रवाई नहीं की. हालांकि, उच्च न्यायालय के फैसले में ट्रायल कोर्ट की इस निष्क्रियता पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है.

पूरे मुकदमे के दौरान यातना की प्रकृति स्पष्ट रूप से सामने आती रही, जिसमें ‘313 बयान’ की रिकॉर्डिंग के दौरान भी यह जाहिर हुआ — यह वह प्रक्रिया होती है जिसमें मुकदमे के अंत में आरोपी का बयान दर्ज किया जाता है. इसके बावजूद, मकोका अदालत के जज ने न तो शिकायतों पर ध्यान दिया और न ही उन्हें समर्थन देने वाले मेडिकल सबूतों पर |

उच्च न्यायालय के फैसले में भी इस लापरवाही पर कोई चर्चा नहीं की गई है 

न्यायिक विफलता के कारण न्याय का गंभीर हनन हुआ है

पुलिस और जेल हिरासत दोनों में दी जाने वाली यातना भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली की एक कड़वी सच्चाई है. जहां हिरासत में मौत होने पर न्यायिक जांच अनिवार्य होती है, वहीं गैर-घातक हिंसा को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

भारत का हिरासत में यातना को लेकर रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है. भारत ने लंबे समय से अपनी इस ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ा है और अब तक यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर (UNCAT) का समर्थन नहीं किया है.

इस मामले में बचाव पक्ष के वकील लगातार जांच में रही अनेक खामियों की ओर इशारा करते रहे हैं. उन्होंने यह ज़ोर देकर कहा कि जिन 12 लोगों को कैद किया गया, उन्होंने अपनी ज़िंदगी के सबसे कीमती साल खो दिए, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा जिनमें परिजनों की मौत भी शामिल है — और जेल में रहते हुए उनके रिश्ते भी बुरी तरह प्रभावित हुए.

लेकिन इन दलीलों के बावजूद उच्च न्यायालय ने किसी भी तरह की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की. जबकि अदालत के पास पूरी शक्ति थी कि वह दोषी पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कड़ी टिप्पणी करे, उन्हें दंडित करे और इन पीड़ितों को यातना और गंवाए गए समय के लिए पर्याप्त मुआवज़ा दे, लेकिन फैसले में इन अहम पहलुओं को नज़रअंदाज़ कर दिया गया.

2015 के अपने फैसले में, मकोका अदालत ने न सिर्फ़ जांच में हुई अनेक गंभीर गड़बड़ियों और यातना व दुर्व्यवहार के गंभीर आरोपों को नज़रअंदाज़ किया, बल्कि एक अहम गवाह सादिक इसरार शेख द्वारा किए गए विस्फोटक दावे को भी नजरअंदाज़ कर दिया |

सादिक इसरार शेख, जिसे इंडियन मुजाहिदीन मॉड्यूल से जुड़े एक अलग मामले में गिरफ़्तार किया गया था, उसने 2008 में इसी मकोका जज के सामने दावा किया था कि उसने और उसके प्रतिबंधित संगठन ने शहर में हुए आतंकी धमाके की साज़िश रची थी. यह दावा उन 12 लोगों की सज़ाओं पर गंभीर सवाल खड़ा करता है जिन्हें दोषी ठहराया गया था |

 

जिसमें कहा गया था कि बम प्रेशर कुकर में लगाए गए थे — अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है, और धमाके की असली प्रकृति अब भी, दो दशक बाद भी, स्पष्ट नहीं है |

मकोका अदालत ने उस समय इस महत्वपूर्ण जानकारी पर कोई कार्रवाई नहीं की, और अब उच्च न्यायालय ने भी इस हमले की दोबारा जांच का आदेश न देकर वही गलती दोहराई है |

यह न्यायिक विफलता, एक गहरे और गंभीर न्यायिक अन्याय में बदल गई है — न केवल अब्दुल वाहिद समेत 13 बंद किए गए लोगों और उनके परिवारों के लिए, जिन्होंने वर्षों तक अपार पीड़ा झेली, बल्कि उन 189 परिवारों के लिए भी, जिन्होंने इस वीभत्स हमले में अपने प्रियजनों को खोया और आज तक असली ज़िम्मेदारों को सज़ा दिलाने की उम्मीद में हैं.

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