मुंबई में कबूतरों को दाना खिलाने पर रोक: आस्था बनाम जनस्वास्थ्य की जटिल टकराहट

Report By: Kiran Prakash Singh

मुंबई, (digitallivenews)।

मुंबई में कबूतरों को दाना डालने पर लगे प्रतिबंध ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है — धार्मिक आस्था और जनस्वास्थ्य के बीच टकराव। बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) ने सार्वजनिक स्थलों और कबूतरखानों में कबूतरों को दाना डालने पर सख्ती से रोक लगा दी है।

■ अदालत का तर्क: स्वास्थ्य और धरोहर की सुरक्षा

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि मुंबई में कबूतरों की अनियंत्रित आबादी न केवल श्वसन संबंधी बीमारियों का कारण बन रही है, बल्कि ऐतिहासिक इमारतों को भी नुकसान पहुंचा रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, कबूतरों की बीट से ‘हिस्टोप्लाज्मोसिस’ और ‘क्रिप्टोकॉक्कोसिस’ जैसी बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ता है।

■ धार्मिक आस्था पर चोट?

यह आदेश विशेष रूप से जैन और गुजराती समुदाय के लिए एक धार्मिक भावनाओं से जुड़ा मुद्दा बन गया है। जैन धर्म में पक्षियों को दाना डालना अहिंसा और करुणा का प्रतीक माना जाता है।
जैन धर्मगुरु नरेशचंद्र जी महाराज ने प्रतिबंध के विरोध में आमरण अनशन की घोषणा की है। इसके समर्थन में हजारों अनुयायियों ने कोलाबा से गेटवे ऑफ इंडिया तक मौन मार्च निकाला।

■ राजनैतिक मोड़ भी आया सामने

मामले ने अब राजनीतिक रंग भी ले लिया है। भाजपा विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा ने नगर आयुक्त को पत्र लिखकर कहा कि:

“क्या केवल कबूतरों को दाना डालना ही जनस्वास्थ्य संकट का एकमात्र कारण है? प्रशासन को आस्था और विज्ञान के बीच संतुलन बनाना चाहिए।”

■ अब प्रशासन की बड़ी चुनौती

मुंबई प्रशासन के सामने अब दोहरी चुनौती है:

  1. कोर्ट के आदेश का पालन

  2. धार्मिक समुदायों की भावनाओं का सम्मान

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कोर्ट के आदेश को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही ठहराते हैं, लेकिन सामाजिक संगठनों का कहना है कि ऐसे निर्णयों को लागू करते समय संवाद और संवेदनशीलता बेहद ज़रूरी है।


■ समाधान की राह: संतुलन की जरूरत

विशेषज्ञ सुझाव दे रहे हैं कि:

  • नियंत्रित और स्वच्छ कबूतरखानों का निर्माण किया जाए

  • दाना डालने की अनुमति सीमित और नियमित समय पर हो

  • साफ-सफाई और निगरानी की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए


🔍 निष्कर्ष:

मुंबई जैसे बहुसांस्कृतिक और विविध धार्मिक परंपराओं वाले शहर में ऐसा कोई भी निर्णय केवल स्वास्थ्य या आस्था तक सीमित नहीं रह जाता। यह मामला अब एक आदत से आगे बढ़कर धार्मिक अधिकार, प्रशासनिक आदेश और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बीच की एक जटिल रेखा बन चुका है।

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