हाईकोर्ट के फैसले और केंद्र-यूपी सरकार की नीतियाँ: टकराव या सुधार?

Report By: Kiran Prakash Singh

 

बहराइच में ग़ाज़ी मियां की दरगाह और तब्लीग़ी जमात पर एफआईआर को लेकर क्रमशः इलाहाबाद और दिल्ली हाईकोर्ट के फैसलों के बाद कई हलकों में यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारें इनसे कुछ सबक लेकर अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे से बाज़ आएंगी?

 

पिछले दिनों इलाहाबाद व दिल्ली के उच्च न्यायालयों ने नरेंद्र मोदी व योगी आदित्यनाथ की केंद्र व प्रदेश सरकारों के मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे और साथ ही गोदी मीडिया को आईना दिखाने वाले दो महत्वपूर्ण फैसले दिए. लेकिन क्या पता, इनमें किसी को इस आईने के सामने जाकर अपनी शक्ल देखना कुबूल होगा या नहीं!

पहले उत्तर प्रदेश की बात करें तो योगी सरकार ने बहराइच में गाजी मियां के नाम से प्रसिद्ध सय्यद सालार मसूद गाजी की दरगाह पर शताब्दियों से लगते आ रहे जेठ मेले (जिसे इस साल पंद्रह मई से पंद्रह जून तक लगना था) को रोका तो प्रशासनिक तौर पर ‘कानून व्यवस्था से जुड़ी चिंताओं’ की आड़ ली थी |

लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने सार्वजनिक बयानों में गाजी मियां को आक्रांता बताकर (साथ ही, यह ‘ऐलान’ कर कि उनकी सरकार किसी भी हालत में आक्रांता को महिमामंडित करने वाला कोई आयोजन नहीं होने देगी) अपने हिंदुत्ववादी समर्थकों को इस रोक के कारणों का दूसरा और कहीं ज्यादा स्पष्ट संदेश दे रहे थे.

इसी दुरंगेपन की बिना पर बाद में उनकी सरकार द्वारा नियंत्रित जिला प्रशासनों ने अयोध्या और उसके पड़ोसी बाराबंकी जिले में दो दरगाहों के परंपरागत सालाना उर्स समारोहों में से एक के आयोजन की अनुमति नहीं दी और दूसरे की अनुमति देकर रद्द कर दी थी. इस सिलसिले में उर्स के आयोजकों का एक बड़ा कुसूर यह बताया था कि वे इन उर्सों को गाजी मियां के उर्स से जोड़कर प्रचारित कर रहे थे.

तब इन पंक्तियों के लेखक ने 21 जून, 2025 को digitallivenews पर ‘उत्तर प्रदेश में रद्द हुए उर्स समारोह : मेमने के विरुद्ध भेड़िए के तर्क’ शीर्षक से प्रकाशित अपनी टिप्पणी में लिखा था, कि इन रोकों के लिए योगी सरकार और उसके जिला प्रशासनों द्वारा दिए जाने वाले तर्क एक प्रसिद्ध लोककथा में भेड़िये द्वारा दिए गए उन ‘तर्कों’ जैसे हैं, जो उसने एक निरीह मेमने को मारकर खा लेने के लिए नए-नए बहाने ढूंढते हुए दिए थे |

अब जेठ मेले पर रोक के खिलाफ दायर याचिकाओं का निस्तारण करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने जो टिप्पणियां की हैं, उनसे पूरी तरह साफ हो गया है, कि मेले पर रोक का मामला हो या उर्सों की अनुमति न देने या देकर वापस ले लेने का, उनके सिलसिले में दिए गए सरकारी ‘तर्क’ वास्तव में मेमने के खिलाफ भेड़िये के तर्क ही थे, साथ ही रोक अनधिकार भी थी और बेजा भी |

बेजा थी जेठ मेले पर रोक

प्रसंगवश, गाजी मियां के मेले पर सरकारी रोक के खिलाफ इंसाफ के लिए उनकी दरगाह की प्रबंधन समिति ने तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की शरण ली थी, कई और ने भी न्यायालय का रुख किया था, लेकिन 17 मई की अपनी सुनवाई में न्यायालय ने प्रदेश सरकार के फैसले में तत्काल हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था |

अलबत्ता, याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखते हुए अंतरिम उपाय के रूप में दरगाह में अनुष्ठान संबंधी सभी नियमित गतिविधियों की अनुमति दे दी थी, इस हिदायत के साथ कि उनमें शामिल जायरीनों की संख्या सीमित रखी जाए, ताकि किसी प्रकार की भगदड़ या अन्य अवांछित स्थितियों से बचा जा सके. साथ ही, जायरीनों की सुरक्षा को लेकर चिंता या प्रशासन के लिए कठिनाई न उत्पन्न हो |

अब उक्त याचिकाओं में से तीन का निपटारा करते हुए कोर्ट की जस्टिस अताउर्रहमान मसूदी व जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की दो सदस्यीय खंडपीठ ने कहा है, कि ऐसी प्रथाएं, जिन्हें अनादि काल से मान्यताप्राप्त है, राज्य द्वारा ‘तुच्छ’ आधार पर बाधित नहीं की जा सकतीं, खासकर जब वे समाज में ‘सांस्कृतिक सद्भाव’ को बढ़ावा देती हों |

वेबपोर्टल ‘लाइव लॉ’ के अनुसार पीठ ने यह भी कहा है, कि कभी-कभी ऐसी प्रथाओं व रीति-रिवाजों का पालन तर्क के अनुकूल नहीं होता, फिर भी उनको बाधित नहीं किया जा सकता, खासकर उनको, जो आम जनता के बीच अनुष्ठानिक मॉडल का रूप धारण कर लेती हैं और समाज में सद्भाव और शांति लाती हैं |

पीठ के अनुसार अनुष्ठान और प्रथाएं अक्सर तर्क या वैज्ञानिकता से परे होती हैं, वे कोई सीमा नहीं जानतीं और कभी-कभी किसी विशेष धर्मस्थल या धार्मिक स्थल पर आस्था की पराकाष्ठा तक पहुंच जातीं और उन स्थलों पर किए जाने वाले कर्मकांडों व प्रथाओं से प्रेरित हो जाती हैं, फिर भी उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षण प्राप्त है |

खंडपीठ ने तब तक ऐसे अनुष्ठानों में न्यायिक हस्तक्षेप के प्रति भी आगाह किया है, जब तक कि वे सार्वजनिक व्यवस्था या राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा न करें |

खंडपीठ ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा है, कि संवैधानिक न्यायालयों को तर्क या विज्ञान के विपरीत ऐसे अनुष्ठानों के औचित्य पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए, उसके मुताबिक उसके द्वारा दिए गए अंतरिम आदेश के तहत व्यवस्थाओं के सुचारु कार्यान्वयन के मद्देनजर अब राज्य की सभी आशंकाएं दूर हो गईं हैं |

इससे पहले दरगाह प्रबंधन समिति ने कोर्ट से याचना की थी, कि वह राज्य सरकार को मेले में सहयोग करने और आयोजन या श्रद्धालुओं की यात्रा में बाधा न डालने के निर्देश के लिए परमादेश दे, इस सिलसिले में दो जनहित याचिकाएं भी दायर की गईं थीं और तर्क दिया गया था, कि मेले की अनुमति देने से इनकार मनमाना व दुर्भावनापूर्ण है, इसे दबाव में तुच्छ आधारों पर किया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 25, 26 और 29 के तहत कर्मकांडों के लिए संवैधानिक संरक्षण का उल्लंघन है |

याचियों ने यह भी कहा था, कि प्रशासन द्वारा उद्धृत कानून-व्यवस्था की चिंताएं निराधार हैं और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना प्रशासन का ही कर्तव्य है, जिसे वह पूर्व में निभाता आया है, इस मेले की शताब्दियों पुरानी परंपरा है और 1987 से राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त व हिंदुओं और मुसलमानों सहित लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है |

ये सरकारी दलीलें!

यहां यह जानना भी दिलचस्प है, कि रोक से पहले इस मेले में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल समेत कई अंचलों के कई लाख लोग जेठ माह के पहले रविवार को गाजी मियां की बारातें लेकर उनकी दरगाह पर आया करते थे, इन बारातों की संख्या 250 से 300 के बीच हुआ करती थी, सुल्तानपुर से 34, वाराणसी से 7, दिल्ली से 3, फैज़ाबाद से 9, बस्ती से 17, प्रतापगढ़ से 11, संतकबीर नगर से 31, अम्बेडकरनगर से 33, जौनपुर से 23, आजमगढ़ से 12, गोरखपुर से 7, बस्ती से 12, सिद्धार्थनगर से 12, पड़ोसी राष्ट्र नेपाल से 2, महाराजगंज से 6, गोंडा से नौ, कुशीनगर से 4, इलाहाबाद से तीन, मुंबई, जबलपुर, और कानपुर से 3-3, कौशाम्बी से 1, अमेठी से 6, रुदौली/बाराबंकी से 9 बारातें आने की परंपरा थी.

पूरी रात चलने वाली इन बरातों की सुरक्षा को लेकर गोरखपुर ज़ोन के कई जनपदों की फोर्स को भी लगाया जाता था, इसकी लंबी परंपरा में किसी बड़ी अप्रिय घटना की फिलहाल कोई मिसाल नहीं है |

इसके बावजूद राज्य सरकार की दलीलें मेले के विरुद्ध ही थीं, उसका कहना था, कि दरगाह घनी, मिश्रित आबादी वाले क्षेत्र में स्थित है, जो भारत-नेपाल सीमा से सटी होने के कारण असुरक्षित है. इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा अभियानों (ऑपरेशन सिंदूर), हाल के आतंकवादी हमलों और घुसपैठ के खतरे को देखते हुए मेले की अनुमति देना अव्यावहारिक है, इससे जन सुरक्षा को खतरा हो सकता है |

उसने यह भी तर्क दिया था, कि जायरीन दरगाह में जाकर अपनी आस्था का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन दुकानों, झूलों और मनोरंजन गतिविधियों से युक्त यह मेला किसी भी आवश्यक धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है |

लेकिन गत 17 जुलाई को कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में संविधान के अनुच्छेद 25 और ‘समग्र संवैधानिक नैतिकता’ के विचार के हवाले से कहा कि सामान्य तौर पर ऐसे सभी कर्मकांड, जिन्हें अनादि काल से मान्यता प्राप्त है, राज्य द्वारा तुच्छ आधार पर बाधित नहीं किए जा सकते, जब तक कि वे सार्वजनिक व्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा न हों, उसने यह भी कहा कि समिति को ही दरगाह और उसकी संपत्ति के प्रबंधन को विनियमित करने का अधिकार है |

बेवजह बनाया था खलनायक:

दूसरी ओर, इसी 17 जुलाई को ही दिल्ली हाईकोर्ट में कोरोना महामारी की पहली लहर में मार्च, 2020 में लगे अचानक लॉकडाउन के वक्त के उस बहुप्रचारित मामले में भी, जिसमें तबलीगी जमात के एक धार्मिक कार्यक्रम को लेकर उसे ‘कोरोना का सुपर स्प्रेडर’ बताकर खलनायक बना दिया गया और खूब मीडिया ट्रायल कराया गया था, दिल्ली पुलिस कहें या केंद्र सरकार के तर्क अथवा सबूत भेड़िये के ही सिद्ध हुए. उनकी बिना पर वह न अपने फैसले का बचाव कर पाई, न ही किसी अपराध का होना साबित नहीं कर पाई |

फलस्वरूप कोर्ट ने उक्त कार्यक्रम में भाग लेने आए विदेशी नागरिकों को अपने घरों में ठहराने के आरोप में 70 भारतीय नागरिकों के खिलाफ दर्ज 16 एफआईआर और चार्जशीट को रद्द कर दिया |

कोर्ट की जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की एकल पीठ ने पाया कि इन एफआईआर को आगे बढ़ाना न सार्वजनिक हित में है और न न्याय के हित में, क्योंकि साक्ष्यों की बिना पर पुलिस यह सिद्ध करने में विफल रही है, कि आरोपियों ने किसी आपराधिक मंशा से यह कृत्य किया था.

दरअसल, मामला कुल मिलाकर यह था कि मार्च, 2020 में कोरोना के चलते अचानक देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया, तो दिल्ली के निजामुद्दीन स्थित मरकज़ में तबलीगी जमात का एक धार्मिक कार्यक्रम आयोजित था, जिसमें कई देशों से जमात के सदस्य आए थे |

इस कारण कि यह जमात 1927 में भारत में ही स्थापित एक इस्लामी धार्मिक संगठन है, और इसका उद्देश्य इस्लाम की मूल शिक्षाओं का प्रचार करना और मुसलमानों को धार्मिक आचरण की ओर वापस लाना है, यह दुनिया भर के मुस्लिम समुदायों में इस्लाम के शांतिपूर्ण प्रचार के माध्यम के रूप में सक्रिय रहता है, इसके सदस्य अक्सर छोटे समूहों में यात्राएं करते हैं और मस्जिदों, मदरसों या मुस्लिम समुदायों के बीच जाकर धार्मिक जागरूकता फैलाते हैं |

लॉकडाउन के कारण उसके कार्यक्रम में आए 190 विदेशी तत्काल अपने देश वापस नहीं जा सके तो उसके दिल्ली के कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें कथित रूप से सरकारी दिशानिर्देशों का उल्लंघन कर अपने घरों में शरण दी तो दिल्ली पुलिस ने इसे आपराधिक कृत्य करार देकर 70 भारतीयों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कर ली थी, जिनमें उन पर भारतीय दंड संहिता, महामारी नियंत्रण अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम और विदेशी नागरिक अधिनियम की विभिन्न धाराएं लगाई गई थीं, इसके साथ ही सरकार समर्थक गोदी मीडिया अपने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे करके उनको कोरोना फैलाने का गुनहगार और खलनायक बनाने लगा था |

इन आरोपियों ने दिल्ली हाईकोर्ट में एफआईआर रद्द करने की याचिका में मांग करते हुए दलील दी थी, कि उनकी कोई आपराधिक मंशा नहीं थी और उन्होंने जो कुछ भी किया, धार्मिक सहिष्णुता और अतिथि सत्कार के भाव के तहत किया था |

उनका यह भी कहना था, कि उनके विरुद्ध आरोपों को साबित करने के लिए पुलिस ने कोई ठोस या प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं कराए हैं, कोर्ट ने उनकी दलील स्वीकार कर अपने फैसले में कहा कि किसी भी आपराधिक कार्यवाही का आधार ठोस सबूत और आपराधिक मंशा होनी चाहिए, यदि ऐसा कुछ स्पष्ट नहीं है, तो उसे रद्द किया जाना चाहिए.

इलाहाबाद और दिल्ली हाईकोर्ट के इन फैसलों के बाद कई हलकों में यह सवाल पूछा जा रहा है, कि क्या केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारें इनसे कुछ सबक लेकर अपने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक एजेंडे से बाज आएंगी?

कई हलकों में इस बात पर भी जोर दिया जा रहा है, कि अदालतों से इंसाफ मिलने में देरी न हो और वह यथासमय मिल जाया करे तो इस एजेंडे से आसानी से पार पाया जा सकता है, विलंब से मिला न्याय तो कई बार न्याय न मिलने के बराबर हंसे जाता है, ऐसा कहने वाले भी हैं कि ये सरकारें अपने इस एजेंडे से शायद ही बाज आएं, क्योंकि वे नौ सौ चूहे खाकर भी हज पर जाने की नहीं सोच सकतीं |

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